Kichak Vadh Katha, Kichak Draupadi Hindi Story, Mahabharata Kahnai | द्रौपदी के साथ पाण्डव वनवास के अंतिम वर्ष अज्ञातवास के समय में वेश तथा नाम बदलकर राजा विराट के यहां रहते थे। उस समय द्रौपदी ने अपना नाम सैरंध्री रख लिया था और विराट नरेश की रानी सुदेष्णा की दासी बनकर वे किसी प्रकार समय व्यतीत कर रही थीं। शास्त्रों में कहा गया है की परस्त्री में आसक्ति मृत्यु का कारण होती है।
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राजा विराट का प्रधान सेनापति कीचक सुदेष्णा का भाई था। एक तो वह राजा का साला था, दूसरे सेना उसके अधिकार में थी, तीसरे वह स्वयं प्रख्यात बलवान था और उसके समान ही बलवान उसके एक सौ पांच भाई उसका अनुगमन करते थे। इन सब कारणों के कीचक निरंकुश तथा मदांध हो गया था। वह सदा मनमानी करता था। राजा विराट का भी उसे कोई भय या संकोच नहीं था। उल्टे राजा ही उससे दबे रहते थे और उसके अनुचित व्यवहारों पर भी कुछ कहने का साहस नहीं करते थे।
दुरात्मा कीचक अपनी बहन रानी सुदेष्णा के भवन में एक बार किसी कार्यवश गया। वहां अपूर्व लावण्यवती दासी सैरंध्री को देखकर उस पर आसक्त हो गया। कीचक ने नाना प्रकार के प्रलोभन सैरंध्री को दिए। सैरंध्री ने उसे समझाया, “मैं पतिव्रता हूं, अपने पति के अतिरिक्त किसी पुरुष की कभी कामना नहीं करती। तुम अपना पाप-पूर्ण विचार त्याग दो। ”
लेकिन कामांध कीचक ने उसकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसने अपनी बहन सुदेष्णा को भी तैयार कर लिया कि वे सैरंध्री को उसके भवन में भेजेंगी। रानी सुदेष्णा ने सैरंध्री के अस्वीकार करने पर भी अधिकार प्रकट करते हुए डांटकर उसे कीचक के भवन में जाकर वहां से अपने लिए कुछ सामग्री लाने को भेजा। सैरंध्री जब कीचक के भवन में पहुंची, तब वह दुष्ट उसके साथ बल प्रयोग करने पर उतारू हो गया। उसे धक्का देकर वह भागी और राजसभा में पहुंची। परंतु कीचक ने वहां पहुंचकर राजा विराट के सामने ही उसके केश पकड़कर भूमि पर पटक दिया और पैर की एक ठोकर लगा दी। राजा विराट कुछ भी बोलने का साहस न कर सके।
सैरंध्री बनी द्रौपदी ने देख लिया कि इस दुरात्मा से विराट उसकी रक्षा नहीं कर सकते। कीचक और भी धृष्ट हो गया। अंत में व्याकुल होकर रात्रि में द्रौपदी भीमसेन के पास गई और रोकर उसने भीमसेन से अपनी व्यथा कही। भीमसेन ने उसे आश्वासन दिया। दूसरे दिन सैरंध्री ने भीमसेन की सलाह के अनुसार कीचक से प्रसन्नतापूर्वक बातें कीं और रात्रि में उसे नाट्यशाला में आने को कह दिया।
राजा विराट की नाट्यशाला अंत:पुर की कन्याओं के नृत्य एवं संगीत सीखने में काम आती थी। वहां दिन में कन्याएं गान-विद्या का अभ्यास करती थीं, किंतु रात्रि में वह सूनी रहती थी। कन्याओं के विश्राम के लिए उसमें एक पलंग पड़ा था, रात्रि का अंधकार हो जाने पर भीमसेन चुपचाप आकर नाट्यशाला के उस पलंग पर सो गए। कामांध कीचक सज-धजकर वहां आया और अंधेरे में पलंग पर बैठकर, भीमसेन को सैरंध्री समझकर उसके ऊपर उसने हाथ रखा। उछलकर भीमसेन ने उसे नीचे पटक दिया और वे उस दुरात्मा की छाती पर चढ़ बैठे।
कीचक बहुत बलवान था। भीमसेन से वह भिड़ गया। दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा, किंतु भीमसेन ने उसे शीघ्र ही पछाड़ दिया और उसका गला घोंटकर उसे मार डाला। फिर उसका मस्तक तथा हाथ-पैर इतने जोर से दबा दिए कि सब धड़ के भीतर घुस गए। कीचक का शरीर एक डरावना लोथड़ा बन गया।
प्रात:काल सैरंध्री ने ही लोगों को दिखाया कि उसका अपमान करने वाला कीचक किस दुर्दशा को प्राप्त हुआ। परंतु कीचक के एक सौ पांच भाइयों ने सैरंध्री को पकड़कर बांध लिया। वे उसे कीचक के शव के साथ चिता में जला देने के उद्देश्य से श्मशान ले गए। सैरंध्री क्रंदन करती जा रही थी। उसका विलाप सुनकर भीमसेन नगर का परकोटा कूदकर श्मशान पहुंचे। उन्होंने एक वृक्ष उखाड़कर कंधे पर रख लिया और उसी से कीचक के सभी भाइयों को यमलोक भेज दिया। सैरंध्री के बंधन उन्होंने काट दिए।
अपनी कामासक्ति के कारण दुरात्मा कीचक मारा गया और पापी भाई का पक्ष लेने के कारण उसके एक सौ पांच भाई भी बुरी मौत मारे गए।
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