Shrimad Bhagavad Gita : भोजन से ही हमें कार्य करने की शक्ति मिलती है। स्वस्थ शरीर के लिए खाना बहुत जरूरी है, लेकिन कभी भी बहुत कम या बहुत ज्यादा नहीं खाना चाहिए। जो लोग आवश्यकता से अधिक खाते हैं या आवश्यकता से कम खाते हैं, वे लक्ष्य से भटक सकते हैं। शरीर अस्वस्थ हो सकता है, वजन बढ़ सकता है। अस्वस्थ शरीर से किए गए काम में सफलता प्राप्त करना बहुत मुश्किल होता है। ये बात महाभारत युद्ध के समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश देते हुए कही थी।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि-
नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:।
न चातिस्वप्नशीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।।
यह श्रीमद् भगवत गीता के छठे अध्याय का 16वां श्लोक है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जो लोग बहुत ज्यादा खाते हैं, वे कभी भी अपने लक्ष्यों तक पहुंच नहीं पाते हैं। इसी प्रकार जो लोग बहुत कम खाते हैं, वे भी कार्यों को पूर्ण नहीं कर पाते हैं और सफलता प्राप्त नहीं कर पाते हैं।
आवश्यकता से अधिक खाने पर हमारा पाचन तंत्र बिगड़ सकता है। अपच, कब्ज, एसीडिटी जैसी समस्याएं हो सकती हैं। ठीक इसी प्रकार जो लोग बहुत कम खाते हैं, वे भी पेट से संबंधित कई प्रकार की समस्याओं का सामना करते हैं। दोनों ही स्थितियों में हमारा शरीर भोजन से उचित ऊर्जा प्राप्त नहीं कर पाता है। अधिक भोजन हमें आलस्य देता है और मोटापा भी बढ़ सकता है। कम भोजन से शरीर कमजोर होता है। अत: हमें जितनी भूख होती है, उतना ही भोजन करना चाहिए।
न ज्यादा सोएं और न कम
श्रीकृष्ण बताते हैं कि व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सोना भी नहीं चाहिए और ना ही आवश्यकता से कम सोना चाहिए। अधिक या बहुत कम सोने वाले लोग भी लक्ष्यों तक पहुंच नहीं पाते हैं। यदि व्यक्ति अधिक समय तक सोता रहेगा तो उसे कार्य करने के लिए समय कम मिलेगा। कम समय काम होगा तो व्यक्ति सफलता तक पहुंच नहीं पाएगा। आमतौर पर अधिक सोने वाले लोग मोटापे का शिकार हो जाते हैं।
यदि व्यक्ति आवश्यकता से कम सोएगा तो उसे काम करने के लिए पर्याप्त ऊर्जा प्राप्त नहीं हो पाएगी। शरीर कमजोर होगा और व्यक्ति बीमार भी हो सकता है। ये दोनों ही परिस्थितियां शरीर को अस्वस्थ बनाती हैं और सफलता से दूर करती हैं।
अत: हमें हर रोज सिर्फ इतनी ही नींद लेनी चाहिए, जितनी आवश्यक हो। ऐसा माना जाता है कि स्वस्थ शरीर के लिए हमें हर रोज 6 से 8 घंटे तक की नींद लेनी चाहिए। इससे अधिक या कम नींद स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकती है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा।।
यह श्रीमद् भगवत गीता के छठे अध्याय का 17वां श्लोक है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने बताया है कि किसे आहार कहते हैं और किसे विहार कहते हैं। जिन लोगों के आहार और विहार श्रेष्ठ रहते हैं, वे लोग ही कार्यों में सफलता और जीवन में सुख प्राप्त करते हैं। श्रेष्ठ जीवन के सोने और जागने के लिए बताए गए नियमों का भी पालन करना चाहिए।
जो खाया जाता है, वह होता है आहार। जबकि जो क्रिया पैरों से (चलना-फिरना) की जाती है, उसे विहार कहते हैं। विहार यानी घुमना-फिरना। जिस व्यक्ति का खाना यानी आहार और विहार यानी घुमना-फिरना श्रेष्ठ रहता है, वह हमेशा स्वस्थ रहता है। स्वस्थ व्यक्ति ही कार्यों में सफलता प्राप्त कर पाता है। इन दोनों बातों में या किसी एक बात में भी गड़बड़ी हो जाती है तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है। अस्वस्थ व्यक्ति कभी भी सुख प्राप्त नहीं कर सकता है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि-
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।
इस श्लोक के अनुसार जिस व्यक्ति का मन वश में हो जाता है और भगवान में लग जाता है, वह सभी प्रकार के भोगों, सुख-सुविधाओं और दुखों से ऊपर हो जाता है। ऐसे लोग हर परिस्थिति में सम भाव से रहते हैं। इन्हें सुख-सुविधाओं का भी मोह नहीं रहता है। हमें भी अपने मन को वश में करना चाहिए। ध्यान और योग के माध्यम से हमारा मन एकाग्र हो सकता है। अत: हर रोज कुछ समय के लिए सुबह-सुबह ध्यान करना चाहिए। इससे मन को मजबूती मिलती है और मन वश में होता है। व्यर्थ के सुख-सुविधाओं को पाने के लिए मन भटकता नहीं है।
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+Neeti sharma *जी धन्यवाद 🙏 आप तत्वज्ञान आधार स्वयं*
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*जो हम बोते हैं, वही हम काटते हैं. हमारे द्वारा हर पल कर्मों के बीज बोये जा रहे हैं. अहंकार से ग्रसित होकर जो कर्म हम करते हैं, उसमें तो खर-पतवार ही उगता है, उसमें कोई फल-फूल नहीं लगते. हमें अपने मन की भूमि पर ध्यान और साधना के बीज बोने हैं तब जो फसल मिलेगी वह शांति, प्रेम व आनंद के फूल खिलाएगी. ऐसी खेती के लिए संकल्प व श्रद्धा का होना आवश्यक है. कोई भी विकार मन में दुःख के कांटे उगाने के लिए सक्षम है, एक बार यदि संकल्प कर लिया कि इसके बस में नहीं होना है तो उससे मुक्त हुआ जा सकता है. जैसे सख्त जमीन को हल के द्वारा नर्म किया जाता है, शरणागति रूपी हल से मन की धरती को तैयार करना होगा. सद्गुरु के चरणों में झुका हुआ शिष्य ही अपने भीतर निरहंकार हो सकता है.*