Chanakya Katha in Hindi Part-7
घोर अपमान
चंद्रगुप्त ने अथितिशाला में चाणक्य को ऊंचे आसन पर बैठाया तथा स्वयं उनके लिए भोजन परोसा। इसके पश्चात वह आग्रह कर-करके चाणक्य को खिलाने लगा। चाणक्य प्रेमपूर्वक भोजन करने लगे, परन्तु अभी वह आधा भोजन भी नहीं कर पाए थे कि नंदराज अपने भाइयों सहित वहां आ पहुंचा। एक काले-कलूटे वअधनंगे ब्राह्मण को ऊंचे आसन पर भोजन करते देख, वह क्रोध से भर गया।
“क्यों रे नंगे !”वह चीखकर बोला___”तेरी इतनी हिम्मत कैसे हो गई जो ऊँचे आसन पर बैठकर भोजन करे। चल उठ,भिखारी कहीं का।”चाणक्य ने नंदराज के शब्दों को अनसुना कर दिया। इससे नंदराज व उसके भाइयों का क्रोध भड़क उठा। वे सभी चाणक्य पर टूट पड़े। उन्होंने चाणक्य के सामने रखा भोजन दूर फेंक दिया तथा उन्हें मारने पीटने लगे। अंत में उन्होंने चाणक्य को अपमानित करके अतिथिशाला से बाहर धकेल दिया।
संकल्प
इस सारे घटनाक्रम में चाणक्य की चोटी की गांठ खुल गई। तब चाणक्य क्रोध में आकर बोले___”अरे दुष्टो ! तुमने एक ब्राह्मण का अपमान करके अच्छा नहीं किया। जब तक मैं तुम्हारा सर्वनाश न कर लूंगा, तब तक अपनी चोटी में गांठ नहीं लगाऊंगा।”इसके बाद चाणक्य एक क्षण भी वहां न रुके। वे तेजी से चलते हुए महल से दूर होते चले गए। तभी चंद्रगुप्त दौड़कर उनके निकट पहुंचा। उसकी आंखो से झर-झर आंसू बह रहे थे। वह उनके चरणो में गिरकर बोला___”मुझे क्षमा करदे ब्राह्मण देवता ! मैं आपको अपमानित होने से नहीं बचा पाया। यदि मैं सक्षम होता और मेरे हाथ में तलवार होती तो मैं उन दुष्टो के टुकड़े-टुकड़े कर डालता।”
चाणक्य ने चंद्रगुप्त को उठाया तथा अपनी छाती से लगाकर बोले___”जो कुछ हुआ, उसमे तेरा कोई दोष नहीं है, तू क्यों दुखी होता है ?”तू क्यों रोता है ?”
“यह सब मेरे ही कारण हुआ है।” चंद्रगुप्त रोते हुए बोला___”मैं ही आपको अतिथिशाला में लेकर गया था।”
“तू कोई मेरा अपमान कराने के लिए वहां थोड़े ही लेकर गया था ?”चाणक्य उसके आंसू पौंछते हुए बोले___”तू तो सम्मानपूर्वक मुझे भोजन कराने ले गया था। मेरा अपमान हुआ, इसमें तेरा दोष तो नहीं है।”
परन्तु चंद्रगुप्त फिर भी चुप न हुआ। वह लगातार रोता ही रहा।
“तू चुप हो जा।”चाणक्य बोले___”तेरा जन्म इस प्रकार रोने के लिए नहीं हुआ। इस तरह रोएगा तो राजा कैसे बनेगा ?”
तब चंद्रगुप्त रोना भूलकर चाणक्य की ओर देखने लगा।
“अच्छा बता।” चाणक्य बोले___”तूने कभी विष्णुगुप्त चाणक्य का नाम सुना है ?”
“उन्हें कौन नहीं जानता।” चंद्रगुप्त ने उत्तर दिया___”तक्षशिला में वे बहुत बड़े आचार्य है। वहां स्थान-स्थान से राजपुत्र आकर उनसे शिक्षा ग्रहण करते है। विष्णुगुप्त, कौटिल्य, चाणक्य, वात्स्यायन व द्रुमिल इत्यादि उनके कई नाम है। वे राजकुमारों को हर प्रकार की शिक्षा देते है।”
“तुझे किसने बताया ?”
“मेरे पिताजी ने। वे कहा करते थे कि चाणक्य दिव्य पुरुष है। उनके सम्पर्क में आने से पत्थर भी हीरा बन जाता है। यदि वे चाहे तो पुरे संसार पर राज्य कर सकते है, परन्तु वे ब्राह्मण है। ब्राह्मण स्वयं कभी राजा नहीं बनते। वे दुसरो को राजा बनाते है और स्वयं उनके मार्गदर्शक बनते है, परन्तु आप उनके विषय में क्यों पूछ रहे है ब्राह्मण देवता ?”
“क्योंकि मैं चाहता हूं कि चाणक्य तुझे अपनी शरण में ले ले। तू पत्थर नहीं, हीरा है। केवल तुझे तराशने की आवश्यकता है।”
“परन्तु मैं उन तक कैसे पहुंच सकूंगा ?”
“मेरे बच्चे।”चाणक्य बोले___”तू उस तक पहुंच चूका है। इस समय तू उसी विष्णुगुप्त चाणक्य की छाती से लिपटा हुआ है।”
चन्द्रगुप्त आश्चर्य से उछल पड़ा। अगले ही पल वह तेजी से चाणक्य से दूर हो गया तथा उन्हें आंखे फाड़-फाड़कर देखने लगा। सहसा उसे अपने कानो पर विश्वास हीं न हुआ। उसने कांपते हुए स्वर में कहा___”ब्राह्मण देवता ! कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा ? कहीं मेरे कान धोखा तो नहीं खा रहे ?”
“नहीं मेरे बच्चे।” चाणक्य बोले___”न तो तू स्वप्न देख रहा है और न ही तेरे कान धोखा खा रहे है।”
चन्द्रगुप्त चाणक्य के चरणो से जा लिपटा और बोला___”मैं कितना भाग्यशाली हूं, जो मुझे आपके दर्शन हुए, आपका प्रेम और आशीर्वाद मिला। मेरा तो जीवन ही सफल हो गया।”
“भूल जा अपने बुरे दिनों को।” चाणक्य बोले___”आज से ही स्वयं को भारत का चक्रवर्ती सम्राट समझना शुरू कर दे। मेरे सपने को तू पूरा करेगा। नंद भाइयों का नाश करके तू मेरे अपमान का बदला लेगा। मैं तुझे इसके लिए तैयार करूंगा।”
चाणक्य के जीवन का नया अध्याय आरम्भ
चन्द्रगुप्त को लेकर चाणक्य तक्षशिला आ गए। वे अन्य राजपुत्रो के साथ-साथ उसे भी हर प्रकार की शिक्षा देने लगे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय एक विशाल भवन में स्थित था। उसके उत्तर भाग में पर्वत श्रृंखलाएं थी, समीप ही शीतल जल वाली नदी बह रही थी। विशाल चिनार के वृक्ष उसकी शोभा को बढ़ा रहे थे। सारा वातावरण मनोहारी था।
धीरे-धीरे चंद्रगुप्त प्रत्येक विद्या में पारंगत हो गया। चाणक्य ने यह पूरा-पूरा प्रयास किया कि वह किसी राजकुमार से कम न रहे। उन्होंने उसे युद्धशास्त्र, राजनीति, कूटनीति, धर्म व नीतियों की भरपूर शिक्षा दी। साथ ही उसके ह्रदय में देश-प्रेम की भावना भी कूट-कूटकर भर दी।
देश को बचाना है
गुरु और शिष्य तेजी से मगध की ओर बढ़े जा रहे थे। मार्ग में चलते-चलते वे भविष्य की योजनाओं पर भी विचार कर रहे थे।
“सिकंदर पर काबू पाने का एक ही उपाय है।” चाणक्य ने कहा___”किसी भी प्रकार सभी राजाओ को एकत्रित करना होगा। उन्हें संगठित करना होगा। उन्हें यह समझाना होगा कि यदि वे एक-दूसरे से लड़ते रहे तो उनका पतन हो जाएगा और पुरे भारतवर्ष पर यवनों का राज्य हो जाएगा।”
“परन्तु गुरुदेव !”चन्द्रगुप्त बोला___”यह बहुत ही कठिन कार्य है। लगभग असम्भव जैसा।””हमे इस असम्भव को संभव बनाना है।” चाणक्य कहने लगे___”सभी राजाओं को एक ही झंडे के नीचे लाना है और वह झंडा होगा चंद्रगुप्त का।”
“मुझे स्वयं से अधिक अपने गुरुदेव पर विश्वास है।” चंद्रगुप्त ने कहा___”मैं जानता हूं की आप जो चाहे कर सकते है, परन्तु इस समय हम कहां जा रहे है ? यह रास्ता मगध की ओर तो नहीं जाता।”
” तुम ठीक कह रहे हो। इस समय हम पर्वतेश्वर से मिलने जा रहे है।”
“पर्वत राज्य अधिपति से ?”
“हां ! वह एक ऐसा राजा है जो महाराज नंदराज का प्रबल विरोधी है। जो मगध पर अपना राज्य चाहता है। तुम तो जानते ही हो कि शत्रु का शत्रु एक प्रकार से मित्र ही होता है।”
“परन्तु उससे अभी आप क्या सहायता मांगेंगे ?”
“यदि उसने हमे सैन्य सहायता दे दी तो हम मगध को जीत सकता है।”
“परन्तु कैसे ?” चंद्रगुप्त ने आश्चर्य से पूछा।
“साफ़-सी बात है। मगध के बहुत-से सैनिक तुम्हारे पिता की हत्या का प्रतिशोध नंद भाइयों से लेना चाहते है। हम उन्हें सरलता से अपनी ओर कर सकते है। अब यदि पर्वत राज्य की सेना हमारे साथ और मिल जाए तो क्या जीत में संदेह रह जाएगा ?”
“परन्तु क्या पर्वतेश्वर हमे सैन्य सहायता दे देगा ?”
“हमारा काम है प्रयास करना। हम अपने प्रयास से कोई कमी नहीं छोड़ेंगे। हारना या जीतना बाद की बात है।” चाणक्य ने कहा।
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