यशोहर जिले में एक छोटा-सा गांव बूड़न था। इसी गाव में एक गरीब मुस्लिम परिवार रहता था। इसी परिवार में हरिदास खां का जन्म हुआ था। पूर्वजन्म के संस्कार ही थे कि बाल्यकाल से ही हरिदास की श्रद्धा हरि नाम जपने में थी। किशोर होते ही उन्होंने वैराग्य ले लिया । गृहत्याग कर दिया और वनग्राम के समीप जंगल में कुटी बनाकर रहने लगे ।
वह बड़े ही शांतिप्रिय व धैर्यवान साधु थे। क्षमा उनका गुण था तो निर्भयता उनका आभूषण थी। उनकी आवाज में बड़ा ही माधुर्य था। वो प्रतिदिन तीन लाख हरि नाम का जाप करते थे। जाप भी उच्च आवाज में करते थे। किसी ने जोर-जोर से जाप करने का कारण पूछा। ”महाराज ! क्या भगवान को कम सुनाई देता है जो आप इतने उच्च स्वर में जाप करते हैं या अन्य कोई कारण है ?”
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“भक्त ! यह हरिनाम बड़ा ही अलौकिक है । इसका श्रवण मात्र भी प्राणी को इस नरक से मुक्त कर देता है। मैं इसी कारण इसका जाप उच्च स्वर में करता हूं कि इस निर्जन वन में जितने भी जीव-जन्तु हैं वातावरण में कितने ही प्रकार के अदृश्य कीट-पतंगे हैं सब इसका श्रवण करें और भव से पार हो जाए।” हरिदास जी बोले। उनकी बात से वह व्यक्ति संतुष्ट हो गया।
उनकी ख्याति बढ़ती जा रही थी। कितने ही लोग उन्हें अपना आदर्श मान कर भगवद्भक्त हो गए। उनकी ख्याति से कुछ लोग चिढ़ते भी थे जिनमें रामचंद्र खां नाम का एक जमींदार था। उसने उनकी साधना और कीर्ति को नष्ट करने का षड़यंत्र रचा और एक वेश्या को धन का लालच दिया। वेश्या तो धन दीवानी थी ही। उसने तत्काल सहमति दे दी। रूप और सौंदर्य की साक्षात मूर्ति उस वेश्या ने शिंगार किया और रात्रि के समय हरिदास जी की कुटिया में पहुंच गई।
वह तो भगवान की आराधना में लीन थे। उनका मनोहर रूप देखकर वेश्या उन पर आसक्त हो गई। एक तो उसका उद्देश्य भी ऐसा ही था दूसरे हरिदास जी की तेजस्वी मुखमुद्रा से उसके मन में ‘काम’ का विकार आ गया।
वह निर्लज्ज होकर निर्वस्त्र हो गई और रात-भर उनके साथ कुचेष्टाएं करने का प्रयास करती रही । रात्रि-भर वह वेश्या हरिदास जी की समाधि भंग करने का प्रयास करती रही परंतु सफल न हो सकी। प्रात: काल होने पर उसने अपने वस्त्र पहने और चलने को तैयार हुई । “देवी ! क्षमा चाहता हूं । समाधिस्थ होने के कारण मैं आपसे बातें न कर सका । आप किस प्रयोजन से आई थीं ?” वह मुस्कराकर चली गई।
तीन रात लगातार वह अपने प्रयास में विफल रही। वह साधु किंचित मात्र भी अपने तप से नहीं डिगा था जबकि उस वेश्या के कानों में निरंतर हरिनाम की आवाज गूंजने से उसका अंतकरण शुद्ध हो गया था। वह चौथी रात्रि भी आई । हरिदास जी उस वक्त भी पूर्णभाव से भगवद्भजन में लीन थे। इतने लीन थे कि उनकी आखों से अश्रुधारा बह रही थी। वेश्या को आत्मग्लानि हो उठी। ‘यह साधारण साधु नहीं हैं ।’ वह सोचने लगी: ‘जो मुझ जैसी परम सुंदरी की उपस्थिति का आभास तक नहीं करता और अपनी ही धुन में लीन रहता है तो निश्चय ही इसे किसी अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो रही है।
अवश्य ही इसे कोई अन्य ऐसा आनंद प्राप्त है जिसके समक्ष संसार के सब रूप इसे फीके लगते हैं ।’ वेश्या उसे पथभ्रष्ट करने आई थी और स्वयं ही सदमार्ग पर चल पड़ी । वह इच्छाओं पर विजयी चरणों पर गिर पड़ी और अपना अपराध क्षमा करने के लिए अश्रुशुइरत स्वर में याचना करने लगी। “हे पुण्यात्मा ! हे महात्मन् !! मुझ पापिन का उद्धार करो। मेरा अपराध क्षमा करो। मुझे अपनी शरण में ले लो।”
उसके प्रायश्चित-भरे शब्दों से हरिदास जी ने समाधि तोड़ी। “देवी ! मानव जीवन मुक्ति मार्ग का एक मात्र रास्ता है। कोई इसे भोग मानकर जीता है तो कोई योग मानकर। उठो और अपने हृदय में हरिनाम धारण करो । तुम्हारा उद्धार हो जाएगा।” वेश्या ने तत्काल सच्चे मन से प्रभु का स्मरण किया । उसे हरिदास जी ने दीक्षित करके तपस्विनी बना दिया। उन्होंने उस स्थान को उसे ही सौंपा और स्वयं हरिनाम प्रचार करने चल पड़े। वेश्या उसी कुटिया में हरिनाम गाने लगी। यह साधु संग और हरिनाम श्रवण का प्रताप था कि वही वेश्या आगे चलकर भगवान की परम भक्त बनी।
हरिदास जी वहां से चलकर शांतिपुर पहुंचे। शांतिपुर में मुस्लिम शासक था। उस धर्मांध शासक के फतवे से हिंदुओं को अपना धर्माचरण करना कठिन हो रहा था। ऐसे में हरिदास जी मुस्लिम होकर भी हिंदू आचरण करते हरिनाम लेते थे। कुछ मुस्लिम अधिकारियों को यह बात बुरी लगी। उन्होंने बादशाह को यह बात बढ़ा-चढ़ाकर बताई।
“बादशाह सलामत ! जबकि नगर में आपके हुक्मनामे से इस्लाम को सर्वव्यापी करने की मुहिम चलाई जा रही है ऐसे में हमारा ही एक मुस्लिम फकीर हिन्दू धर्म के गीत गाता फिर रहा है। इससे हमारी मुहिम पर बुरा असर पड़ता है। उस फकीर को सजा न दी गई तो हिंदू ताकतवर हो जाएंगे। बगावत हो जाएगी।”
बादशाह ने तत्काल हरिदास जी की गिरफ्तारी का हुक्म दिया। उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। यह खबर आग की तरह हरिदास जी के भक्तों में फैली। सब बड़े दुखी हुए और ऐसे अन्यायी बादशाह की सर्वत्र भर्त्सना होने लगी। इधर हरिदास जी जेल में भी हरिनाम का जाप करते रहे। जेल के अन्य बंदी भी उनके भक्त हो गए। स्थिति काबू से बाहर होती देखकर अधिकारियों ने मुकदमा चलाय । उन्हें अदालत में काजी के सामने लाया गया।
“हरिदास ! तुम बड़े भाग्यों से तो मुसलमान के घर में जन्मे फिर भी काफिरों के देवता का नाम लेते हो। उन्हीं जैसा आचरण करते हो। हम तो हिंदू के घर का पानी भी नहीं पीते। यह महापाप तुम न करो। इसके लिए तुम्हें जहनुम्म की आग में झुलसना होगा। अब तुम कलमा पड़ लो तो तुम पाक हो जाओग ।”
“हे काजी साहब ! इस संसार का मालिक एक है। उसकी दृष्टि में मानव की अलग-अलग कौम नहीं है। हमने ही उसे बांट रखा है। उसी हरि ने प्रत्येक मानव को यह अधिकार दिया है कि वह चाहे जिस नाम से उसकी आराधना कर सकता है। जब उस अल्लाह भगवान की दृष्टि में मैं अपराधी नहीं हू तो आपके अनुसार मैं कैसे अपराधी हुआ ?”
“यह अपराध है। इसकी तुम्हें सख्त सजा मिलेगी। या तो तुम कलमा पड़ो या सजा के लिए तैयार रहो।” काजी गुस्से से बोला।
“कोई किसी मानव को धर्म बदलने के लिए बाध्य नहीं करता। यह तो मानव की अपनी दृष्टि होती है कि वह किस दृष्टि से प्रभु के पास जाता है। जो भी सजा दें मुझे मंजूर है परंतु देह के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी हरिनाम छोड़ना स्वीकार नहीं।”
“यह काफिर है। इसे इसके गुनाह के लिए बाइस बाजारों में घुमाया जाए और इसे इतने बेंत लगाए जाएं कि इसकी सांसें इसका साथ छोड़ दें।” क्रोध में उन्हें सजा सुना दी गई।
हुक्म की तामील हुई । हरिदास जी को घुमाते हुए बाजारों में बेंत लगाए जाने लगे। हरिनाम में लीन उन्होंने अपने प्राण को केंद्र में स्थिर कर लिया। बेंतों की मार से उनके मुख से ‘उफ’ तक न निकली। मारने वाले थक गए परंतु पिटने वाला अडिग रहा। चूंकि उन्होंने अपने प्राण केंद्र में स्थिर किए थे इसलिए सिपाहियों ने उन्हें मरा जानकर गंगा में फेंक दिया। परंतु जिसके जीवन की डोरी स्वय जगन्नाथ ने पकड़ी है उसे कौन मार सकता है ? वे भी चेतन होकर जीवित गंगा से निकल आए। अधिकारियों ने जब यह सुना तो भय भीत होकर हरिदास जी के चरण पकड़ लिए और क्षमा याचना करने लगे। साधु तो क्षमाशील होते हैं।
इसी समय कृष्ण रूप स्वामी चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में हरिनाम की पावन सुधा बरसा रहे थे। हरिदास जी भी वहीं पहुच गए और महाप्रभु के सानिथ्य में हरिनाम लेते रहे। फिर महाप्रभु की आज्ञा से वे एक अन्य संन्यासी नित्यानंद जी के साथ नगर-भर में हरिकीर्तन करते घूमने लगे। फिर वे पुरी में आ गए और वहीं कुटिया बना कर जीवन पर्यंत रहे। संत हरिदास यवन ने हरिनाम के भक्तों की संख्या असंख्य कर दी थी। कितने ही उनके शिष्य थे। वह उन भगवद्भक्तों में से थे जो अपने साथ-साथ समस्त मानव जाति के उद्धार में प्रयास रत रहे और अपने शत्रुओं को भी हरिनाम की दीक्षा दी।
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